एक पैराग्राफ लिखिए—और सामने तैयार हो जाती है ऐसी साड़ी की फोटो, जिसे देखकर लोग पूछें, शूट कहाँ हुआ? यही जादू फिलहाल Instagram, X और Pinterest पर धमाल मचा रहा है। रेट्रो लुक, क्लासिक ज्वेलरी, पुराने जमाने की हेयरस्टाइल—सब कुछ ऐसा कि लगे किसी फैशन मैगज़ीन का स्प्रेड हो। इस लहर के केंद्र में है Google Gemini का नया 2.5 Flash मॉडल, जो टेक्स्ट और इमेज को एक साथ समझकर दृश्य रचता है, एडिट करता है और एक ही किरदार को अलग-अलग सेटिंग में कंसिस्टेंट रखता है।
सबसे बड़ा फर्क—मॉडल की नेटिव मल्टीमोडल आर्किटेक्चर। पहले जहाँ टेक्स्ट-टू-इमेज पाइपलाइन में अलग-अलग चरण होते थे, अब एकीकृत प्रोसेस है। इसकी वजह से साधारण ‘कीवर्ड लिस्ट’ नहीं, बल्कि नक्शे जैसी “कहानीनुमा” प्रॉम्प्ट काम करती है। यूज़र सीन, कैमरा, लाइट, टेक्सचर और माहौल का वर्णन करते हैं—और आउटपुट में मिलती है फोटो-यथार्थता, जो सामान्य जनरेटिव टूल्स में मुश्किल लगती थी।
यहीं से शुरू होता है रेट्रो साड़ी ट्रेंड। लोग 60s-70s की फिल्मी सौंदर्य-भाषा, ब्रोकेड बनारसी या कान्जीवरम का वजन, जूमका-कमरबंद, गजरा लगे बन और सेपिया-टोंड माहौल के साथ प्रयोग कर रहे हैं। पुरानी विरासत को नई तकनीक के कैमरे से देखने का यह तरीका नॉस्टेल्जिया और मॉडर्न क्राफ्ट का अनोखा संगम बन गया है।
और सबसे अहम—अब ये सब किसी महंगे स्टूडियो, बड़े क्रू या भारी-भरकम बजट के बिना संभव है। जिस चीज़ में पहले हफ्तों की प्लानिंग और लाखों का खर्च लगता, उसे रचनात्मक लोग अब घंटों में टेस्ट कर, मिनटों में पॉलिश कर पोस्ट कर रहे हैं। यही लोकतांत्रिक पहुंच इस ट्रेंड की असली ताकत है।
जादू प्रॉम्प्ट में है—और प्रॉम्प्ट कोई मंत्र नहीं, बल्कि एक शूट प्लान है। सफल क्रिएटर्स की रणनीति तीन भागों में बंटती है: सीन-डिज़ाइन (क्या और कहाँ), इमेज-क्राफ्ट (कैसे दिखे), और किरदार-कंसिस्टेंसी (कौन दिखे और हर फ्रेम में वैसा ही क्यों लगे)।
सीन-डिज़ाइन में सबसे पहले ‘केंद्रीय विषय’ तय कीजिए—जैसे “विंटेज बनारसी साड़ी में महिला, 1970s की मुंबई की फील, मॉनसून की भाप, खिड़की से आती टंगस्टन-सी गर्म रोशनी”। इसके बाद लोकेशन जोड़िए—पुरानी हवेली, कोलकाता ट्राम-स्टॉप, एंबेसडर कार, लकड़ी की खिड़कियाँ, टाइल वाला बरामदा। फिर माहौल—हल्का धुँधलापन, बारिश की बूंदें, पॉलिश्ड फर्श में सॉफ्ट रिफ्लेक्शन।
इमेज-क्राफ्ट में कैमरा और लाइटिंग की भाषा काम आती है। उदाहरण के लिए—“85mm f/1.8, शैलो डेप्थ ऑफ फील्ड, गोल्डन-ऑवर सॉफ्ट लाइट, रिम-लाइट से पल्लू की हाइलाइट, हल्का फिल्म-ग्रेन, सॉफ्ट बोकैह।” कंपोज़िशन में ‘रूल ऑफ थर्ड्स’, ‘लीडिंग लाइन्स’ और ‘नेगेटिव स्पेस’ के संकेत दें। ये निर्देश मॉडल को फोटोग्राफर की नज़र से सोचने में मदद करते हैं।
किरदार-कंसिस्टेंसी या “कैरेक्टर प्रिजर्वेशन” तीसरी कुंजी है। पहले प्रॉम्प्ट में चेहरे के मुख्य फीचर्स, स्किन-टोन, हेयरस्टाइल, आभूषण और पहनावे का क्लोज़—फिर उसी व्यक्ति को अलग सीन में दोहराने के निर्देश। इससे एक ही मॉडल अलग पोज़/लोकेशन में पहचानने लायक बनी रहती है—जैसे किसी फैशन कैंपेन की कहानी आगे बढ़ रही हो।
Gemini 2.5 Flash की कंवरसेशनल एडिटिंग इसे और आगे ले जाती है। “पल्लू में हल्की हवा जोड़ो”, “ब्लाउज़ का रंग मरून कर दो”, “बैकग्राउंड में दाईं तरफ की वस्तु हटाओ”—ऐसे साधारण निर्देशों से टारगेटेड बदलाव किए जा सकते हैं, बिना सीन दोबारा बनाने के। यह स्टाइल-लॉक और तेज़ इटरेशन, मार्केटिंग टीमों के लिए वरदान है।
रेट्रो साड़ी की डिटेल्स आउटपुट को प्रामाणिक बनाती हैं। बनारसी के जरी-वर्क का पैटर्न, कांचीपुरम की मोटी जालियाँ, ऑर्गेंज़ा की पारदर्शिता, शिफॉन का फॉल—ये टेक्सचर-हिंट्स AI को सतह और वजन समझाते हैं। ज्वेलरी में जूमका, कंठा/चोकर, नथ, माथापट्टी, कंगन, कमरबंद; हेयरस्टाइल में सेंटर-पार्टेड बन, गजरा, या फिंगर-वेव्स; मेकअप में विंग्ड आईलाइनर, म्यूट लिप्स—इन सबका स्पष्ट जिक्र यथार्थ बढ़ा देता है।
कल्पना कीजिए दो प्रॉम्प्ट्स—पहला: “रेट्रो साड़ी फोटो।” दूसरा: “1974 का फिल्मी मूड, बनारसी सिल्क साड़ी में मॉडल; 85mm f/1.8, शैलो DOF; टंगस्टन-वार्म लाइट, खिड़की से सॉफ्ट स्पिल; पल्लू पर रिम-लाइट; सेपिया-टोन पोस्ट-प्रोसेस; लकड़ी की खिड़की, पीछे बारिश का बोकैह; हल्का फिल्म-ग्रेन।” फर्क साफ है—दूसरा प्रॉम्प्ट एक शूट-ब्रीफ है, जो मॉडल को सही दिशा देता है।
यह भी समझना जरूरी है कि वायरलिटी सिर्फ खूबसूरती से नहीं आती—कहानी से आती है। एक सीरीज़ बनाइए: “पंडाल से निकलती बंगाली ड्रेप, हाथ में छतरी, गीली सड़क पर एंबेसडर का रिफ्लेक्शन”; “अगली फोटो—वही मॉडल स्टूडियो में हैंड-टिन्टेड लुक के साथ”; “तीसरी—सीढ़ियों पर बैठी, रेडियो पकड़े, 70s के पोस्टर बैकड्रॉप।” तीन फ्रेम, एक किरदार, एक सौंदर्य-यात्रा—यही सोशल फीड में समय रोक देती है।
वर्कफ़्लो को कदमों में बाँट लें:
बेहतर रिज़ल्ट के लिए कुछ पक्का फॉर्मूला काम आता है:
यह ट्रेंड सिर्फ क्रिएटर्स के लिए मज़ेदार नहीं, ब्रांड्स के लिए रणनीतिक है। बुटीक और D2C लेबल बिना स्टूडियो बुक किए लुकबुक के कॉन्सेप्ट टेस्ट कर रहे हैं—टेन ड्रेप, फाइव बैकग्राउंड, थ्री पैलेट—जो अच्छा लगे, उसके बाद असली शूट। एजेंसियाँ एड-क्रिएटिव के कई वेरिएंट बनाकर A/B टेस्ट कर रही हैं। इन्फ्लुएंसर अपनी पहचान के साथ रीजनल ड्रेप—जैसे कोकीकलम या नौवारी—ट्राय कर रहे हैं, ताकि कंटेंट अलग दिखे।
अब कुछ ठोस प्रॉम्प्ट टेम्पलेट्स, जिन्हें आप अपने हिसाब से मोड़ सकते हैं:
“1970s फिल्म पोस्टर का एहसास, मरून बनारसी साड़ी, जूमका और कमरबंद; 85mm f/1.8, शैलो DOF; टंगस्टन-वार्म की लाइट, खिड़की से सॉफ्ट स्पिल; लकड़ी की खिड़की पर बारिश की बूंदें; पल्लू पर हल्की रिम-लाइट; सेपिया-टोन पोस्ट-ग्रेडिंग, हल्का फिल्म-ग्रेन।”
“कोलकाता ट्राम-स्टॉप, बंगाली ड्रेप साड़ी, लो बन में गजरा; 50mm f/2.2, नैचुरल ओवरकास्ट लाइट; हल्का फॉग/हैज़; ट्राम ट्रैक्स ‘लीडिंग लाइन्स’ बनाएं; रंग-पैलेट—म्यूटेड ग्रीन/ऑकर; बैकग्राउंड में हल्का मोशन-ब्लर।”
“स्टूडियो फाइन-आर्ट लुक: कान्जीवरम सिल्क, हैवी जरी बॉर्डर; 105mm पोर्ट्रेट लेंस, f/2.8; सॉफ्टबॉक्स की की-लाइट, ग्रिडेड हेयर-लाइट; गहरे चारकोल बैकड्रॉप पर स्पॉट-फेदरिंग; ज्वेलरी पर माइक्रो-हाइलाइट, बारीक टेक्सचर शार्प।”
किरदार-कंसिस्टेंसी के लिए शुरुआती “आईडी” जैसा पैराग्राफ बना लें: “दूधिया गेहुआँ रंगत, अंडाकार चेहरा, हल्की डिंपल स्माइल, घने कंधे-तक बाल, बाईं आँख के पास ब्यूटी स्पॉट, पतली गोल्ड नथ, क्लासिक विंग्ड आईलाइनर।” आगे हर प्रॉम्प्ट में “उसी मॉडल” लिखें और नई सेटिंग दें।
तकनीक जितनी रोमांचक है, उतने ही जरूरी हैं एथिक्स और सुरक्षा।
रियल-वर्ल्ड सीमाएँ भी समझें। AI फोटो सुंदर होती है, पर फैब्रिक की असली ड्रेपिंग-फिजिक्स हर बार सही नहीं बैठती। जटिल पैटर्न में रिपीट/वॉर्पिंग दिख सकता है। सूक्ष्म हाथ-पोज़ या ज्वेलरी-चेन कभी-कभी टूटे लगते हैं। ऐसे में कंवरसेशनल एडिटिंग से छोटे-छोटे सुधार करें और जब बहुधा ठीक न हो, सीन को अलग एंगल या सरल बैकड्रॉप से री-जनरेट करें।
कई टीमों के लिए हाइब्रिड एप्रोच कारगर है—पहले AI से कॉन्सेप्ट और स्टोरीबोर्ड, फिर चुनिंदा फ्रेम असली शूट में। इससे क्रिएटिव रिस्क कम होता है और शूट-डे ज्यादा फोकस्ड होता है। जो ब्रांड ई-कॉमर्स पर हैं, वे प्री-लॉन्च फेज़ में AI विज़ुअल्स से मूड सेट कर, बाद में प्रोडक्ट-एक्यूरेट फोटो से लिस्टिंग अपडेट करते हैं।
व्यापार पक्ष भी दिलचस्प है। छोटे बुटीक जिनके पास स्टूडियो और मॉडल्स का बजट नहीं, वे अब कलेक्शन की धार पकड़ सकते हैं—रंग, लाइट, ड्रेप का ‘लुक-एंड-फील’ दिखा सकते हैं। इन्फ्लुएंसर्स के लिए यह निरंतरता वाला कंटेंट इंजन है—एक ही किरदार को त्योहार, वेडिंग-सीज़न और ऑफिस-वेयर में ले जाकर बहु-एपिसोड सीरीज़ बनाना आसान।
क्या यह ट्रेंड टिकेगा? फैशन में चक्र दोहराते हैं—रेट्रो आज है, कल कंटेम्पररी मिनिमलिज़्म लौटेगा। फर्क बस इतना है कि अब यह चक्र तेज़ है। AI से मूडबोर्ड बनाना, थीम टेस्ट करना और विज़ुअल स्टोरी कह देना—ये सब कंटेंट-इकोनॉमी का सामान्य टूलकिट बनता जा रहा है। रेट्रो साड़ी लहर इसका सबसे भारतीय, सबसे आत्मीय उदाहरण है।
यदि आप शुरुआत करना चाहते हैं, छोटे-छोटे लक्ष्य रखें। एक किरदार तय करें, तीन लोकेशन, दो कलर-पैलेट। हर फ्रेम में एक ‘साइलेंट हीरो’ चुनें—कभी पल्लू की उड़ान, कभी कलाई की कंगन-झंकार, कभी बारिश में भीगते कदम। टेक्स्ट में कैमरा-लाइटिंग की भाषा बोलें, और हर इटरेशन को नोट्स में दर्ज करें—कौन-सा शब्द क्या बदल देता है। यही आपका निजी “लुक बुक” बन जाएगा।
अंत में, यह याद रखें—AI आपका सह-निर्माता है, विकल्प नहीं। कपड़े का असली वजन, चलती ट्राम की ठक-ठक, रसोई से आती इलायची-चाय की खुशबू—ये सब हम इंसानों के अनुभव हैं। AI उनकी छवि बनाता है, पर जीवन हम भरते हैं। और शायद इसी तालमेल में इस ट्रेंड की असल खूबसूरती है—विरासत और भविष्य, एक ही फ्रेम में।