देश ने गणेश चतुर्थी 2023 को 19 से 28 सितंबर के बीच ऐसे मनाया कि घर-घर की आरती से लेकर विशाल सार्वजनिक पंडालों तक एक ही स्वर गूंजता रहा—विघ्नहर्ता का स्वागत और विदाई। भक्ति के साथ-साथ इस बार फोकस साफ था: परंपरा निभाते हुए पर्यावरण और सुरक्षा का ध्यान। महानगरों की भीड़, मोहल्लों की छोटी प्रतिमाएं, और परिवारों की सादगी—तीनों साथ दिखे।
तिथियां, परंपराएं और ज्योतिषीय संयोग
हिंदू पंचांग के मुताबिक भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी 2023 में 18 सितंबर से शुरू होकर 19 सितंबर सुबह 10:28 बजे तक रही। इसी वजह से कई भक्तों ने उपवास 18 सितंबर को रखा, जबकि स्थापना और मुख्य पूजा 19 सितंबर को हुई। मंगलवार के दिन चतुर्थी पड़ना शुभ माना जाता है, और इस बार रवि योग के साथ स्वाति और विषाखा नक्षत्र ने धार्मिक मान्यता के लिहाज से दिन को और खास बना दिया।
भगवान गणेश—जिन्हें गजानन, एकदंत, सिद्धिविनायक और वक्रतुंड जैसे नामों से पूजा जाता है—की प्रतिमाएं मिट्टी से बनाकर घरों और सार्वजनिक पंडालों में स्थापित की गईं। प्राणप्रतिष्ठा, दुर्वा चढ़ाना, मोदक और लड्डू का नैवेद्य, रोज़ की आरती और मंत्रोच्चार—पूरे दस दिनों तक यही क्रम चलता रहा। महाराष्ट्र में उकडीचे मोदक, आंध्र-तेलंगाना में कुडुमुलु, कर्नाटक में कड़ुबू और तमिलनाडु में कोझुकट्टै जैसे पारंपरिक प्रसाद ने उत्सव का स्वाद बढ़ाया।
स्थापना के बाद कई परिवार 1.5, 3, 5 या 7 दिन में विसर्जन करते हैं, जबकि सार्वजनिक पंडाल अधिकतर दसवें दिन प्रतिमा को विदा करते हैं। 28 सितंबर को अनंत चतुर्दशी के साथ शोभायात्राएं निकलीं—ढोल-ताशों, नृत्य और जयकारों के बीच प्रतिमाएं नज़दीकी झीलों, नदियों या समुद्र तटों तक पहुंचीं। यही गणेश विसर्जन भगवान के कैलाश लौटने का प्रतीक है—आशीर्वाद देकर वे जाते हैं, और अगले साल वापसी का वादा दे जाते हैं।
इस बार बड़े-बड़े शहरों के चर्चित पंडालों ने एक बार फिर भारी भीड़ खींची। मुंबई का लालबागचा राजा और अंधेरी-गिरगांव क्षेत्र के पंडाल, पुणे का दगडूशेठ हलवाई गणपति, हैदराबाद के विशालकाय पंडाल, बेंगलुरु के राजाजीनगर और इंदिरानगर के आयोजन, नागपुर, नासिक, सूरत और अहमदाबाद के समुदाय-आधारित मंडल—हर जगह भक्ति के साथ सादगी और अनुशासन का संतुलन दिखा।
आयोजन, सुरक्षा और पर्यावरण: शहरों की नई प्राथमिकता
दस दिनों में लाखों लोगों की आवाजाही को देखते हुए पुलिस और स्थानीय प्रशासन ने सुरक्षा, ट्रैफिक और भीड़ प्रबंधन पर खास काम किया। कई शहरों में प्रमुख मार्गों पर डायवर्जन, पार्किंग के अलग जोन, और देर रात तक चलने वाली सार्वजनिक परिवहन सेवाएं दिखीं। नदी-तालाब किनारे एनडीआरएफ/स्थानीय आपदा टीमों, गोताखोरों और लाइफ जैकेट के साथ बचाव इंतज़ाम रखे गए। बड़े जलाशयों पर क्रेन और बैरिकेडिंग का सहारा लिया गया ताकि विसर्जन क्रमबद्ध और सुरक्षित रहे।
पर्यावरण की चिंता पहले से ज्यादा स्पष्ट दिखी। शाडू मिट्टी (प्राकृतिक मिट्टी) की मांग बढ़ी और कई मंडलों ने प्लास्टर ऑफ पेरिस से दूरी बनाई। प्राकृतिक रंगों से पेंट की गईं प्रतिमाएं, कम रसायन वाला शृंगार, और फूल-माला की अलग कलेक्शन जैसी पहलें आम रहीं। नगर निकायों ने कृत्रिम तालाब बनाए, जहां प्रतिमाएं सम्मानपूर्वक विसर्जित हों और बाद में सामग्री को वैज्ञानिक तरीके से अलग किया जा सके। कई जगह स्वयंसेवकों ने घाटों पर सफाई अभियान चलाया—थर्माकोल, प्लास्टिक और कपड़े जैसी चीजों को अलग डस्टबिन में डालने की अपील की गई।
ध्वनि प्रदूषण को काबू में रखने के लिए डीजे और लाउडस्पीकर पर समयबद्ध नियम लागू रहे। मंडलों ने घोषणाओं, रूट मैप और समय स्लॉट साझा किए ताकि भीड़ एक साथ एक जगह न उमड़े। मेडिकल कैंप, मोबाइल एम्बुलेंस और खोया-पाया काउंटर जैसे इंतज़ामों ने परिवारों के लिए उत्सव को सुरक्षित और सुलभ बनाया।
डिजिटल दर्शन का ट्रेंड भी जारी रहा—कई पंडालों ने लाइव कवरेज और वर्चुअल कतारें चलाईं, ताकि बुजुर्ग और दूर रहने वाले भक्त भी आरती देख सकें। दान-पेटियां क्यूआर कोड तक पहुंचीं, जिससे नकदी की भीड़ कम हुई और पारदर्शिता बढ़ी।
आर्थिक पहलू भी अहम रहे। महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले का पेन कस्बा जैसे कारीगर केंद्रों में महीनों पहले से ऑर्डर बुक हो गए। कर्नाटक, आंध्र-तेलंगाना, ओडिशा और गुजरात के कारीगरों ने भी पारंपरिक डिजाइनों के साथ हल्के, रंग-सीमित और आसानी से विसर्जित होने वाली प्रतिमाओं पर जोर दिया। सजावट की दुकानों, फूल बाजार, मिठाईवालों और रोशनी-साउंड प्रदाताओं के लिए यह सीजन कमाई का बड़ा मौका बनता है—स्थानीय अर्थव्यवस्था में अस्थायी रोजगार भी बढ़ता है।
रिवाजों की बात करें तो कई घरों में सुबह-शाम आरती के साथ बच्चों के लिए ‘गणपति बाप्पा’ की कहानियां सुनाना, घर की सजावट में हस्तनिर्मित तोरण और रंगोली बनाना, और पड़ोसियों के घर ‘वेजन’ पर जाना—ये सब फिर से लौटा। समुदायों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम, भजन-संध्या, नाटक और बच्चों की चित्रकला प्रतियोगिताएं कराईं, ताकि उत्सव सिर्फ देखने भर का न रहे, बल्कि सीखने और जुड़ने का माध्यम भी बने।
अंतिम दिन अनंत चतुर्दशी की शोभायात्राओं में पुलिस-प्रशासन, स्वयंसेवकों और मंडलों के तालमेल ने फैसिलिटेशन का नया मानक रखा—लाइन-अप, विश्राम-स्थल, पानी और शौचालय जैसी बेसिक सुविधाएं पहले से बेहतर दिखीं। कई शहरों ने ‘नो-लिटर’ जोन घोषित किए और घाटों पर बायोडिग्रेडेबल सामग्री के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया।
यह उत्सव हर साल अगस्त-सितंबर में आता है, और 2023 में भी धार्मिक अनुशासन के साथ सामाजिक जिम्मेदारी का मेल साफ दिखा। भक्तों ने परंपरा निभाई, और शहरों ने यह सुनिश्चित किया कि श्रद्धा के साथ प्रकृति और सुरक्षा भी सुरक्षित रहे—ताकि अगले साल जब बाप्पा फिर आएं, तो नदी-तालाब भी उतने ही निर्मल मिलें, जितनी श्रद्धा दिलों में बहती है।
Sujit Ghosh
भाई ये सब बकवास है क्या? मिट्टी की प्रतिमा? अब तो हर कोई इको-फ्रेंडली बनने लगा है लेकिन जब बाप्पा आते हैं तो उनकी श्रद्धा कम हो जाती है? देश का ये धर्म है ना नहीं तो कोई एनवायरनमेंटल वॉरियर बन जाता है! विसर्जन पर लाइफ जैकेट? ये तो अब ड्रामा हो गया है। भगवान को भी बचाने की जरूरत पड़ रही है? 😂
sandhya jain
इस उत्सव को देखकर मुझे लगता है कि हमारी संस्कृति केवल रिवाजों तक सीमित नहीं है-ये एक जीवंत सामाजिक बुनियाद है जो हर पीढ़ी को जोड़ती है। बच्चों को कहानियाँ सुनाना, पड़ोसियों के घर जाना, रंगोली बनाना-ये सब छोटी-छोटी चीजें हैं लेकिन इन्हीं में हमारी पहचान छिपी है। जब हम बाप्पा की प्रतिमा को नदी में डालते हैं, तो हम वास्तव में प्रकृति को अपना भाग मान रहे होते हैं। ये कोई ट्रेंड नहीं, ये तो एक अनंत चक्र है-जिसमें भक्ति, जिम्मेदारी और जुड़ाव सब कुछ एक साथ बहता है। कल्पना कीजिए अगर हम इसे बस एक त्योहार समझ लें तो हम अपनी आत्मा का एक हिस्सा खो देंगे।
Anupam Sood
ये सब बहुत अच्छा लगा पर असल में कितने लोग वाकई इसका मतलब समझते हैं? मैंने देखा एक दोस्त ने गणेश जी की प्रतिमा लेकर इंस्टाग्राम पर सेल्फी ली और फिर उसे नदी में फेंक दिया बिना किसी भावना के 😅 और फिर रिलीव बनाया बिना किसी बुद्धि के। अब तो गणेश जी भी फ्लैश बन गए हैं। बस एक बार आरती कर लो और चले जाओ। दिल में नहीं तो बाहर का ड्रामा क्या फायदा? 🙏💔
Shriya Prasad
मुंबई का लालबागचा राजा देखा? बस एक बार जाने का फैसला कर लो।
Balaji T
महोदय, यह लेख एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से अत्यंत अपर्याप्त है। इसमें धार्मिक अनुष्ठानों के ज्योतिषीय आधार, सामाजिक संरचना के साथ उनके समन्वय, तथा आर्थिक प्रभावों के सांख्यिकीय विश्लेषण का कोई उल्लेख नहीं है। यह केवल एक भावनात्मक वर्णन है, जिसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की पूर्ण अनुपस्थिति है। मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में इस तरह के लेखों को अधिक गहराई से संपादित किया जाएगा।
Nishu Sharma
सुनो मैंने नासिक में एक विसर्जन स्थल देखा जहां लोगों ने प्रतिमा के साथ बायोडिग्रेडेबल बैग में फूल और दुर्वा डाले और फिर उसे नदी में डाला बिना किसी प्लास्टिक के और नहीं तो वो लोग बैग को उठाकर घर ले गए और उसमें मिट्टी को सूखने दिया और फिर उसे अपने घर के बगीचे में बो दिया ताकि बाप्पा का आशीर्वाद जमीन में जाए और फूल खिल जाए और बच्चे उसे देखकर भी बाप्पा के बारे में सीखें ये बहुत खूबसूरत बात है और ये सब लोग जो ये कर रहे हैं वो असली भक्त हैं जिन्हें त्योहार का मतलब समझ है और इसके बाद भी वो लोग जो बस फोटो खींचकर जाते हैं वो भी अपने घर जाकर अपने बच्चों को बताते हैं कि ये क्या है और ये बहुत बड़ी बात है क्योंकि ये बात जाती है जीवन भर
Shraddha Tomar
yo ये जो गणेश चतुर्थी है वो तो अब एक इमोशनल रिसेट बटन बन गया है न? जब जिंदगी टेंशन में हो तो बस एक बार आरती देकर बाप्पा को याद कर लो और फिर चले जाओ दिल शांत हो जाता है। और हाँ वो जो बच्चों की रंगोली प्रतियोगिता है वो बहुत बढ़िया है-बच्चे भी सीख रहे हैं और बड़े भी खुश हैं। और ये नो-लिटर जोन? बिल्कुल गेम चेंजर। अब तो ये ट्रेंड बन गया है और मैं बस चाहती हूँ कि ये सब अगले साल भी ऐसे ही चले और शायद एक दिन इसे यूनेस्को में भी डाल दिया जाए ताकि दुनिया भी देखे कि भारत में धर्म और प्रकृति एक साथ बहते हैं 🌿🙏✨